कायिक प्रवर्धन: Difference between revisions

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* नए पौधे मूल पौधे की हूबहू नकल होते हैं क्योंकि वे एक ही जनक से उत्पन्न होते हैं।
* नए पौधे मूल पौधे की हूबहू नकल होते हैं क्योंकि वे एक ही जनक से उत्पन्न होते हैं।


== <big>अभ्यास</big> ==
# तने द्वारा वानस्पतिक प्रसार की विभिन्न विधियों की व्याख्या करें ?
# तने द्वारा वानस्पतिक प्रसार की विभिन्न विधियों की व्याख्या करें ?
# वानस्पतिक प्रवर्धन के क्या फायदे हैं?
# वानस्पतिक प्रवर्धन के क्या फायदे हैं?

Revision as of 15:46, 5 August 2023

वनस्पति प्रचार/  कायिक प्रवर्धन (Vegetative Propagation)- कली, तना आदि की कायिक इकाइयों से नए पौधों का निर्माण होता है। इन कायिक इकाइयों को प्रवर्धन कहते हैं। नीचे दिए गए विभिन्न पौधों के हिस्सों का उपयोग करके वानस्पतिक प्रजनन हो सकता है -

तने द्वारा वानस्पतिक जनन -

पौधे के तने या शाखाओं पर सामान्यतया कलिकाएँ धुरी में होती हैं। कलियाँ जो कक्ष में मौजूद होती हैं (अर्थात् नोड पर पत्ती के लगाव का बिंदु) प्ररोह में विकसित होती हैं। इन्हें वानस्पतिक कलिकाएँ (vegetative buds) कहते हैं।

वानस्पतिक कलियाँ नए पौधे को जन्म दे सकती हैं। इन कलियों में एक छोटा तना होता है जिसके चारों ओर अपरिपक्व अतिव्यापी पत्तियां मुड़ी होती हैं। ये कायिक प्रवर्धन द्वारा एक नया पौधा तैयार कर सकते हैं।

तने द्वारा कायिक जनन की विधियाँ  -

(i) तने से नए पौधे कटिंग विधि (cutting method) द्वारा प्राप्त किए जाते हैं।

इस विधि में तने के छोटे हिस्से को तेज चाकू से काट कर निकाल दिया जाता है। तने की कटिंग पर कुछ कलियाँ होनी चाहिए। अब तना काटने के निचले सिरे को नम मिट्टी में दबा दिया जाता है। काटने का ऊपरी भाग जिस पर कलिका लगी हो, मिट्टी के ऊपर रखा जाता है। कुछ दिनों के बाद इस कटिंग से नई जड़ें विकसित हो जाती हैं। कली बढ़ती है और एक अंकुर (यानी पत्तियों वाली शाखाएं) पैदा करती है। इस प्रकार, एक नए पौधे का उत्पादन होता है जो बिल्कुल मूल पौधे के समान होता है, जैसे गुलाब, चंपा, अंगूर, गन्ना, केला, कैक्टस आदि।

(ii) तने में वानस्पतिक प्रजनन की एक अन्य विधि लेयरिंग (layering) है।

इस विधि में मूल पौधे की एक परिपक्व शाखा को नीचे झुकाकर मिट्टी से ढक दिया जाता है। पौधे का सिरा जमीन से ऊपर रहता है। जड़ शाखाओं से विकसित होती है और एक नए पौधे में विकसित होती है। लेयरिंग विधि आमतौर पर उन पौधों में की जाती है जिनकी शाखाएँ लंबी और पतली होती हैं, जैसे चमेली।

(iii) ग्राफ्टिंग (grafting) भी तनों में वानस्पतिक प्रजनन की एक विधि है,

जहाँ दो अलग-अलग पौधों से वांछित गुणों के नए पौधे विकसित किए जाते हैं। प्ररोह वाला भाग स्कोन कहलाता है और जड़ वाला भाग स्टॉक कहलाता है। सायन स्टॉक से जुड़ा होता है जो पौधे के विकास के लिए सहायता और बुनियादी आवश्यकता प्रदान करता है, जैसे सेब, आम, गुलाब आदि।

पत्तियों द्वारा वानस्पतिक प्रजनन

जब कुछ पौधों की पत्तियों को नम मिट्टी में डाला जाता है, तो पत्तियों के कटे हुए किनारे या किनारे एक नए पौधे को विकसित करते हैं जो जनक के समान होते हैं, जैसे ब्रायोपिबिलम या अंकुरित पत्ती का पौधा।

जड़ों और कंदों (bulbs) द्वारा वानस्पतिक प्रजनन

कुछ पौधों जैसे शकरकंद, डाहलिया आदि में, उनकी जड़ों और कंदों के माध्यम से एक नया पौधा विकसित होता है ।

वानस्पतिक प्रवर्धन के लाभ -

  • वानस्पतिक जनन से उत्पन्न पौधों को बढ़ने में कम समय लगता है और बीजों से उत्पन्न पौधों की तुलना में फूल और फल जल्दी लगते हैं।
  • नए पौधे मूल पौधे की हूबहू नकल होते हैं क्योंकि वे एक ही जनक से उत्पन्न होते हैं।

अभ्यास

  1. तने द्वारा वानस्पतिक प्रसार की विभिन्न विधियों की व्याख्या करें ?
  2. वानस्पतिक प्रवर्धन के क्या फायदे हैं?